प्रत्येक वर्ष की भांति इस बार भी पूरा विश्व 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मना रहा है। एक शताब्दी से ज्यादा अर्से से मनाया जाने वाला यह दिवस मुख्यतः महिला सशक्तिकरण के उद्देश्य से शुरू किया गया था। इसमें महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिलवाना भी शामिल था क्योंकि उस समय विश्व के अधिकांश देशों में महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं था। खैर इतिहास के झरोखे से बाहर निकल कर वर्तमान की बातें की जाय। महिला सशक्तिकरण के नाम पर शुरू हुए इस दिवस को मुख्यतः तीन विचार खंडों में विभाजित कर इसके औचित्य को समझने का प्रयास किया जा सकता है।
पहला विचार यह कि देश में महिला के सशक्तिकरण के प्रयासों का परिणाम धीमी ही सही पर सुखद रहा है। लेकिन इन दावों को सशक्तिकरण के बरअक्स आंकड़ों को देखें तो सारे दावे हवा हवाई साबित होते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार महिलाओं पर होने वाले दुष्कर्म, घरेलू हिंसा व दहेज हत्या में सलाना 11 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। एनसीआरबी द्वारा जारी ताजा आंकड़ों के अनुसार महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले दोगुने से भी अधिक हुए हैं। आंकड़ों के मुताबिक पिछले दशक में हर घंटे महिलाओं के खिलाफ अपराध के 26 मामले यानि औसतन दो मिनट में एक शिकायत दर्ज होती है। आईपीसी की धारा 498ए के तहत पति और रिश्तेदारों द्वारा किसी भी महिला को शारीरिक या मानसिक रुप से चोट पहुंचाने के 909,713 मामले यानि हर घंटे 10 मामले दर्ज की गई है। धारा 354 के तहत किसी भी महिला की लज्जा भंग करने के आशय से उस पर हमला या आपराधिक बल प्रयोग करने जैसी दूसरा सबसे अधिक अपराध के करीबन 470,556 मामले दर्ज किये गये हैं। वहीं महिलाओं को अगवा एवं अपहरण करने के 315,074, बलात्कार के 243,051, महिलाओं के अपमान के 104,151 और दहेज हत्या 80,833 के मामले दर्ज किये गये हैं। यानि कुल मिलाकर देश में महिलाओं छेड़छाड़, दुष्कर्म, यातनाएं, दहेज हत्या व यौन उत्पीड़न जैसे अपराधों में निरंतर वृद्धि हो रही है। हम खूब महिला दिवस मना लें, लेकिन सच तो यही है कि हिन्दुस्तान में महिलाएं न घर से बाहर सुरक्षित हैं, न घर में सर्व-सम्मानित। ऐसे में सवाल लाजिमी है कि क्या सिर्फ आज के ही दिन महिला सम्मान की बातें करने से महिला सम्मान की सुरक्षा हो जाती है या फिर यह महज एक खाना पूर्ति भर है? एक दिन के लिए महिला हितों की दिखावे से महिलाओं का कौन-सा भला होने वाला है?
एक दूसरा विचार है कि महिला दिवस दरअसल महिलाओं को बेवकूफ बनाने का षडयंत्र भर है। इस दिवस की आहट के साथ हर बार महिलाओं की गुणगान का सिलसिला चल निकलता है। सभी अपने भाषण-प्रवचन, यशोगान, कविता, संकल्प व बड़ी-बड़ी बातों के माध्यम से खुद को महिला सशक्तिकरण का पैरोकार साबित करने पर तुले रहते हैं। लेकिन आंकड़ों की मानें तो न्यायपालिका और केंद्र और राज्य सरकारों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम है। और 2013 के आंकड़ों के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ दो महिला जज थीं। संसद में महिला आरक्षण विधेयक अभी भी लंबित है। पंचायतों में जहां महिलाओं के लिए आरक्षित किया गया। लेकिन कड़वी सच्चाई यह है कि वहां महिलाओं के नाम पर उनके पति और बेटे निर्वाचन से मिली ताकत का उपयोग कर रहे हैं। और इन सब चिंताओं के बीच यूएनडीपी की वह रिपोर्ट भी है जिसके मुताबिक महिलाओं के सशक्तिकरण में अफगानिस्तान को छोड़कर भारत सभी दक्षिण एशियाई देशों से पीछे है। और सबसे बड़ा आरोप यह भी है कि अगर महिला सम्मान की इतनी ही चिंता पुरूषों का है तो सदियों विभिन्न धर्मों के पैगम्बर, गुरू आदि पुरूष ही क्यों है। महिला दिवस से यदि महिलाओं को अपना हक मिलता है तो क्या कारण है कि पारिवारिक, सामाजिक व राजनीतिक दृष्टि से महिलाओं को अब तक वह सम्मान नहीं मिल पाया है जिसकी वह हकदार है। ऐसे में यह बात समझ से परे है कि आखिर क्यों महिलाएं पुरूषों के इस छल को नहीं समझतीं या समझने का प्रयास नहीं करतीं हैं?
महिला सशक्तिकरण को लेकर महिलाओं के द्वारा शुरू किया गया एक तीसरा पक्ष भी है जो यह मानती हैं कि महिला सशक्तिकरण मतलब पुरूषों से प्रतिद्वंदिता करना भरना है। और इसे सबसे ज्यादा पोशाक के साथ जोड़ा कर देखा और दिखाया जाता है। ऐसी महिलाएं यह समझने को तैयार ही नहीं है कि महिलाओं के लिए कपड़ों का जहां-तहां से फटे डिजाइन ईजाद करना बाजार के पुरूषवादी सोच की ही उपज है जो उसे एक नुमाइश की चीज में पूरी तरह से तब्दील करने को आमादा है। दूसरी ओर कुछ महिलाएं पुरूषों के तरह शराब, सिगरेट के सेवन कर अपने को सशक्त होने का गुमान पाल बैठती हैं। निस्संदेह कोई क्या पहने, क्या खाये-पिये यह नितांत निजी मामला है। पर क्या ऐसे वाहियात मामलों में पुरूषों के साथ बेमतलब का दंगल करना सही मायने में महिला सशक्तिकरण का हिस्सा हो सकता है? हकीकत यह है कि समाज का एक बड़ा तबका आज भी शराब, सिगरेट के सेवन का बुरा मानता है चाहे वह पुरूष करे या महिला। आज बेटियां जल, थल व नभ तीनों जगह पुरूषों के साथ बराबरी के दंगल में है जो सकारात्मक है। हमारा संविधान पुरूष व महिला दोनों को ही बराबरी का हक देता है। इसलिए बेहतर होगा कि बेटियां पुरूषों से उल जूलूल मामले में बराबरी करने से तौबा करे। महिलाओं को इस एक दिनी दिवस के नाम पर हो रहे ढोंग से बाहर निकलना होगा तभी सही अर्थों में महिलाएं सशक्त हो पायेंगी और पुरूषों से किसी प्रकार की प्रतिद्वंदिता करने की जरूरत ही नहीं रह जायेगी।
विश्वजीत राहा (स्वतंत्र टिप्पणीकार) , संपर्क: 9931566372