हम ऐसे देश में रहते हैं। जिसकी आत्मा संस्कृति और सभ्यता में निवास करती है। वर्तमान अवस्था में हमनें उस संस्कृति और सभ्यता को चुल्लू भर पानी में डुबो दिया है। तभी तो जिन बच्चों को हमारी संस्कृति में भगवान का दर्जा दिया जाता रहा है। उसके ही आबरू और शरीर के साथ खेल खेला जा रहा है। समाज ने अपनी आबरू और इज्जत को आधुनिकता की चोली में रखकर बेच दिया है। हवस, और वासना ने सारी मर्यादाओं को तार-तार कर दिया है। आज एक सभ्य समाज के लिए खतरा उत्पन्न हो रहा है। आज की स्थिति में हमारा समाज इतना निकृष्ठ हो जाएगा, इसकी परिकल्पना शायद किसी ने की हो। जिस देश में युवाओं को आगे बढ़ाने की बात खुद देश के प्रधानमंत्री करते हो, उस देश में बच्चों के साथ बढ़ती दुष्कर्म की खबरें, सभ्य समाज को आहत, और चिंतित करती हैं, कि आखिर हमारे समाज को ऐसा कौन सा रोग लग गया है। जिससे वह अपनी मानवता को शर्मसार कर रहा है।
इन घटनाओं ने समाज का एक विकृत स्वरूप पैदा किया है, जिसका स्थान सभ्य समाज में कभी नहीं हो सकता। इस तरीके की औछी मानसिकता ने समाज को झकझोर दिया है। आज पश्चिमी संस्कृति और आधुनिकता की चादर ने सामाजिक मूल्यों के पतन को बढ़ावा दिया है। भारतीय समाज में बाल यौन शोषण एक सबसे ज्यादा उपेक्षित बुराई है। पिछले कुछ वर्षों में भारत में बाल यौन शोषण से सम्बंधित घटनाएं बहुत तेज़ी से तस्दीक़ दे रहीं हैं। सरकार और समाज दोनों को इस दिशा में ध्यान देने की पहल शुरू करनी होगी। उससे पहले आवश्यकता यह है, कि बच्चों के माँ- बाप जागरूकता दिखाए। अगर माँ-बाप सजग हों जाए तो बहुत हद तक वे आपने बच्चों को यौन शोषण का शिकार होने से बचा सकते हैं। यह समाज को दहला देने वाली खबर है, कि देश के भीतर बच्चों के साथ यौन शोषण करने वाला 93 फ़ीसद घटनाओं में कोई न कोई उनका अपना, करीबी,या फ़िर रिश्तेदार होता है। फ़िर इसको किस चश्मे से देखा जाए। सामाजिकता को कलंकित और बच्चों के भविष्य को बर्बाद करने में जब अपनो का ही हाथ हो। फ़िर तो यही कहा जा सकता है। मानवता और सामाजिकता इससे ज्यादा ओर कलंकित और अपमानित नहीं हो सकती।
विडम्बना इस बात की है की माँ-बाप ही बच्चों को सिखाते हैं की बड़ों की आज्ञा माने। फ़िर अगर बड़े ही उनकी आबरू और जिंदगी से खेल खेलते हैं, फ़िर बच्चों के लिए जगह बची कहाँ है? यह उक्ति सुना था, एक दिन कलयुग आएगा, हंस चुगेगा दाना, कौआ मोती खाएगा। लेकिन इस तरीके की हबस और कुकृत्यों के प्रति समाज अग्रसर हो जाएगा, इसकी कल्पना शायद किसी ने न की हो। सरकारी सर्वेक्षण के आकंड़ेे कहते हैं, कि भारत में हर ढाई घण्टे में एक लड़की का बलात्कार होता है। हर तेरह घंटे में 10 साल से कम उम्र की लड़की के साथ बलात्कार होता है। इसके इतर वर्ष 2015 में दस हज़ार से अधिक बच्चियों के साथ ज्यादती हुई। फ़िर आख़िर हम कैसा समाज बना रहे हैं, जिसमें बहन-बेटियां और साथ में छोटे नाबालिग बच्चे भी महफ़ूज नहीं हैं। क्या यहीं हमारे महापुरुषों और महान आत्मओं के सपनो का भारत होगा। जिसमें आदमी दूसरों से कम अपने पास-पड़ोस से ज्यादा भयभीत और डरा हुआ होगा। शायद आज हमारा देश भटक गया है। उसने अपनी मर्यादा और लाज को खो दिया है। जो उसके विनाश का कारण भी है। आज हमारे समाज में बच्चे अगर हबशीपने का शिकार हो रहें हैं, तो उसके कुछ वैधानिक कारण भी हैं। जब विधान ने महिलाओं के खिलाफ हो रहे यौन शोषण अपराध के खिलाफ भारतीय दंड संहिता में धारा 376 और 354 का प्रावधान है , और पुरुषों और महिलाओं के खिलाफ हों रहे अप्राकृतिक यौन संबंध रूपी आपराधिक गतिविधियों को रोकने के लिए धारा 377 का ज़िक्र है। फ़िर अफ़सोस इसी बात का होता है, कि बच्चों के खिलाफ हों रहे यौन उत्पीड़न के लिये कोई विशेष वैधानिक प्रावधान क्यों नही?
और अगर सरकारें 2012 में संसद में बच्चों को यौन उत्पीड़न से सुरक्षा दिलाने के लिए अधिनियम पॉस्को एक्ट बना कर अपनी नैतिक जिम्मेदारी से बच रहीं हैं, तो उनको सोचना चाहिए, बच्चों के साथ ये अपराध अभी की देन नहीं है। यह पहले से चला आ रहा है, फ़िर इस को रोकने की सक्रियता इतनी देर बाद क्यों हुई? नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक देश में बच्चों के खिलाफ अपराध तेजी से बढ़ रहे हैं। हमारे समाज की सबसे बड़ी दुखती रग यह भी है, कि सामाजिक लोक-लाज की ख़ातिर ऐसे अपराध होने पर मासूमों को ही चुप करा दिया जाता है। जिससे यह समस्या समाज में औऱ घिनोने आकार को धारण करती जा रहीं है। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक देश में नौनिहालों की सुरक्षा की स्थिति काफ़ी चिंताजनक है। 2010 में जहां बलात्कार के लगभग 5400 मामले दर्ज हुए, वहीं 2014 में यह संख्या बढ़कर 13,000 हो गई। बच्चों के प्रति बलात्कार के सबसे अधिक मामले मध्यप्रदेश में दर्ज हुए। जिस गति से कानून होने के पश्चात भी बच्चों के साथ दुष्कर्म के मामलों में बढ़ोत्तरी हो रही है, वह यह बयाँ करती है, कि हमारा सामाजिक ढांचा ही चरमरा चुका है। जिसमें संस्कृति और सभ्यता की चिंगारी न बचकर सिर्फ़ हवस और नँगापन ही बचा है। जिसको दूर करने के लिए सभ्य समाज को लाठी चलानी होगी। झूठी प्रतिष्ठा और लज्जा के लिए हमारा समाज अपने बच्चों के खिलाफ होने वाले दंश को झेल रहा है। इस प्रवृत्ति को हमारे समाज की दूर करना होगा। तभी नन्हें बच्चे असमाजिक कुदृष्टि से कुछ हद तक बच सकते हैं।
महेश तिवारी
स्वतंत्र टिप्पणीकार
सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर लेखन
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