इसे कहते हैं सौ सुनार की एक लुहार की, सरकार ने एक झटकें में ही एक लाख से अधिक फर्जी कंपनियों को डीरजिस्टर्ड कर साफ संदेश दे दिया कि वह काला धन बनाने के रास्तों को बंद करके ही रहेगी। सरकार ने केवल एक माह यानी की इसी जून में इन कंपनियांे पर कार्यवाही की है। सरकारी आंकड़ों की माने तो पिछले दस सालों में यह सबसे बड़ी कार्यवाही है। मई तक देश में तीन लाख से ज्यादा कंपनियां बंद हो चुकी थी। फिर अकेले जून के महिने में ही एक लाख से अधिक बोगस कंपनियों को बंद किया गया। हांलाकि विपक्षी व प्रतिक्रियावादियों की यह प्रतिक्रिया हो सकती है कि सरकारी नीतियों के चलते केवल एक माह में ही एक लाख से अधिक कंपनियां बंद हो गई और औद्योगिक विकास प्रभावित हो गया। बेरोजगारी बढ़ गई। पर समझना यह होगा कि यह सभी कंपनियां केवल कागजी कंपनियां थी और इन कंपनियांे के माध्यम से केवल और केवल सरकार के चूना लगाना उद्देश्य था।
ुु एक मोटे अनुमान के अनुसार देश में इस समय यही कोई कंपनियां देशभर में पंजीकृत है। इनमें से केवल छह लाख कंपनियां यानी की आधी से भी कम कंपनियां सरकार को टेक्स की अदायगी करती है। कुल मिलाकर 3 लाख कंपनियां ऐसी भी है जो अपनी सालाना आय जीरो दिखाती है। प्रश्न यह उठता है कि जब सालाना आय जीरो है तो यह कंपनियां कुछ भी नहीं कर रही है। इसके अलावा बहुत से कंपनियां ऐसी भी है जो थोड़ा बहुत कारोबार दिखाते हुए टेक्स बचाने का काम कर रही है।
देखा जाए तो आर्थिक सुधारोें और कर दायरें में कर चोरों को लाने के लिए सरकार ने योजनावद्ध तरीके से प्रयास किए है। सरकार की मंशा को असल में आम आदमी ही क्या बहुत से आर्थिक विश्लेषक और राजनीतिक दल भी समझ नहीं पाए। केवल और केवल सरकार के निर्णयोें की आलोचना करने में ही उलझ कर रह गए। विदेशों से काला धन वापिस नहीं लाने के लिए सरकार की विफलता बताते हुए आलोचना में उलझे रह गए जबकि सरकार ने देश के अंदर और बाहर कालाधन पर कारगर रोक लगाने की दिशा में आगे बढ़ती रही। अब यह देखो की पहले गरीब से गरीब देशवासी को शून्य बैलेन्स पर बैंकों में जन धन खातों के माध्यम से जोड़ दिया। अब स्वाभाविक है कि देशवासी सीधे बैंकांे से जुड़ गए। खातों से आधार नंबर को तरीके से जोड़ दिया गया। खाते है तो पेन कार्ड से अधिक से अधिक लोगों को जोड़ने का अभियान चला दिया। डीबीटी योजनाओं को आधार से लिंक कर दिया। सीधे आपके नाम और पते के आधार पर आपके सभी खातों पर सरकार की नजर हो गई। इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए सरकार ने नवंबर में एकाएक नोट बंदी का एलान कर सबको सकते में ड़ाल दिया। पचास दिन तक लोग बैंकों में जूझते रहे। सरकार की लोगों की डीमोनेटाइजेशन से हुई परेशानी को मुद्दा बनाया गया पर चुनावों में जनता से विपक्षियों और अर्थशास्त्रियों के इस मुद्दे की भी हवा निकाल कर रख दी। इसके बाद सरकार ने अभी संभलने का भी मौका नहीं दिया कि जीएसटी की पहले तो हवा बनाई और फिर एक जुलाई से इसे लागू भी कर दिया। मजे की बात यह है कि आम आदमी ने सरकार के इन फैसलों को खुले दिल से स्वीकारा जबकि सोशियल मीडिया को हथियार बनाकर सरकार के निर्णयों, खातों में पैसे जमा कराने, विदेशों से काला धन नहीं आने और विकास दर कम होने के मुद्दों को इस तरह से उछाला गया कि जैसे आमआदमी पर तो गाज ही गिर गई हो।
दर असल सरकारी योजनाओं का बेजा फायदा उठाने, कर बचाने के नए नए तरीके इजाद करने पर सरकार की अब सीधी नजर हो गई है। जीएसटी लागू करते समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के चार्टेड एकाउंटेटस के आयोजन में उन्हीं को संबोधित करते हुए साफ साफ कहा कि कर चोरी का रास्ता बताने में सीए अधिक सक्रिय है। उन्होंने साफ कर दिया कि कारोबारी सीए की सलाहों के आधार पर ही काले धन को सफेद करने में जुटते हैं वहीं कर चोरी के रास्ते भी सीए के माध्यम से ही कारोबारियों को प्राप्त होती है। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में इस तरह की कार्यवाही करने वाले सीए को एक तरह से चेतावनी भी देदी थी। पर इससे देर सबेर सरकार इस तरह की गतिविधियों में लिप्त चार्टेड एकाउंटेटस पर कार्यवाही करने में भी नहीं हिचकेगी यह साफ संकेत मिल चुका है।
दरअसल सरकारी भाषा में कहे तो विमुद्रीकरण के बाद से सरकारी एंजेंसियां खासतौर से आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई समेत आर्थिक गतिविधियों पर नजर रखने वाली संस्थाएं अतिसक्रिय हो चुकी है। यही कारण है कि फर्जी कंपनियों में काला धन खपाने वाले लगातार सरकारी एंजेंसियों की स्केनिंग में आ चुकी है। देर सबेर इस तरह की संस्थाएं सामने आने वाली है। एक लाख फर्जी कंपनियांे या यों कहे कि कागजी कंपनियों को बंद करने का निर्णय कर सरकार ने साफ कर दिया कि सरकार अब इस तरह की गतिविधियों को अधिक दिन तक चलने नहीं देगी। दरअसल सरकार की इतनी हिम्मत भी चुनावों में जनता के मेंडेट और आमजन द्वारा कठोर फैसलों की सहज स्वीकार्यता के चलते सरकार इस तरह की कार्यवाही कर पा रही है। इसे इसी से समझा जा सकता है कि 15 लाख में से तीन लाख यानी की 20 फीसदी कंपनियां तो केवल मुखौटा कंपनियां होने से सरकार को कितना चूना लग रहा था। इससे यह भी साफ हो जाता है कि लाभ दिखाने वाली कंपनियांें में से भी बहुत से कंपनियां निश्चित रुप से कर बचाने के दूसरे रास्ते अपना रही होगी। देखना यह है कि इस तरह के सरकारी प्रयास कब तक जारी रहते हैं। यदि सरकार इसी इच्छा शक्ति से काम करती रही तो काला धन व फर्जी बाड़ों पर प्रभावी अंकुश लगाने में काफी हद तक सफलता मिल सकेगी।
डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा,
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