औरत अपनी बिंदी चिपका देती है
यहां वहां…
शौचालय के दरवाजे पर
पलंग के सिरहाने पर
होटल के शीशे को भी सजा देती है।
इसमें कोई खास फलसफा नहीं है
जल्दीबाज़ी हो कभी
तो किवाड़ या शीशे से निकाल कर पहन ली जाएगी
एक पुरानी पर लाल सजीली बिंदी
हो सकता है उसे,
अच्छा नही लगता होगा उसे बिंदियाँ बर्बाद करना
जो भी हो मेरे कमरे में भी
यहाँ वहां चिपकी है कि अटकी हैं
उसकी काली, लाल बिंदियाँ…
छोटे और मंझले आकार की
हाँ छोटा-सा था उसका चेहरा
मैं हटाता नही
पुराने मौसम की टिकुलियों को
थोड़ी बासी लम्हाती तितलियों को
साथ होने का अहसास यह भी तो है
दस फुटिया कमरे से
उसके चले जाने के बाद
और दिल के चोर दरवाजों से
हमेशा हमेशा के लिए
ओह …
पेंटर आने वाला है।
नेहा कुमारी, बीएचयू, वाराणसी