भले ही ऐसोचेम और एमआरएसएस की हालिया रिपोर्ट को अतिशयोक्तिपूर्ण करार कर कमतर देखने का प्रयास किया जाए पर यह साफ है कि केवल और केवल रख रखाव के कारण ही भोजन सामग्री की बर्बादी में हम दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत आगे हैं। हांलाकि रिपोर्ट तो हमें अव्वल बता रही है। देश में खाद्यान्नों, फल-फूलों, सब्जियों और दूध आदि के उत्पादन में लगातार बढ़ोतरी हो रही हैं पर केवल उचित रखरखाव की सुुविधा नहीं होने से आधा नहीं तो इससे कुछ ही कम हो पर बर्बादी का आंकड़ा बहुत अधिक है। इससे सरकार को दोतरफा नुकसान उठाना पड़ता है। एक और अधिक उत्पादन के बावजूद किसान को खासतौर से सब्जियों के सीजन में मध्य सीजन में ओने पोने भावों में अपनी सब्जियां बेचने को मजबूर होना पड़ता है वहीं बिचैलियों की इन्ही सब्जियों से बारे न्यारे हो जाते हैं। सीजन के समय यहां तक की लागत भी नहीं निकलने के कारण किसानों को टमाटर, आलू, प्याज जैसी फसलों को मण्डियों में ले जाने की लागत भी नहीं मिल पाती है। दूसरी तरफ सीजन के बदलाव के साथ ही इनके भाव आसमान पर चढ़ने लगते हैं और इससे जहां मंहगाई का नजला भी सरकार के सर ही गिरता है। खासतौर से टमाटर को तो किसानों द्वारा सड़कों पर फंेका जाना आम होता जा रहा है। प्याज के भावों में उतार-चढ़ाव आम होता जा रहा है। फसल आने के समय यही प्याज किसान की आंखों में आंसू ला देता है तो साल में एकाध महिने के लिए सरकार और आम उपभोक्ता को रुलाने में भी प्याज आगे रहता है। एसोसेम की माने तो साल में तकरीबन साढ़े चार सौ अरब का नुकसान तो दूध, सब्जी और फलों का हो जाता है। इसका एक बड़ा कारण देश में आधुनिकतम कोल्ड स्टोरेज सुविधा की कमी है। देश में उत्पादन का 11 फीसदी ही कोल्ड स्टोरेज में भण्डारण की सुविधा है। देश में करीब 6300 कोल्ड स्टोरेज इकाइयां है। करीब 3 करोड़ टन से अधिक ही खाद्य पदार्थों के भण्डारण की सुविधा है। ऐसा नहीं है कि सरकार इससे चिंतित नहीं हो, सरकारी स्तर पर खाद्यान्नों की बर्बादी को रोकने के प्रयास जारी है। पर अभी काफी कुछ किया जाना है। खाद्यान्नों की सालाना बरबादी के आंकड़े पिछले दिनों ही भारत सरकार के खाद्य प्रसंस्करण विभाग के सचिव अविनाश कुमार श्रीवास्तव ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा आयोजित एक सेमिनार में भी दिए थे। खाद्यान्नांे की बरबादी पर चिंता व्यक्त करते हुए बताया कि दलहन और खाद्यान्नों को लंबे समय तक सुरक्षित रखने की प्रोद्यौगिकी विकसित करने पर विचार कर रही है। खेती सरकार की प्राथमिकता होते हुए भी अभी हम खेती को लाभ का सौदा बनाने में सफल नहीं हो पाए हैं। देखा जाए तो हमारे प्रयास हमेशा इकतरफा ही रहते हैं। कभी हम सोचते ही नहीं कि किसी एक दिशा में किए गए प्रयास का लाभ प्राप्त करने के लिए हम दूसरी दिशा में भी सोचे। अनाज की कमी होती है तो हम अधिक उत्पादन पर जोर देने लगते हैं। जब उत्पादन बढ़ने लगता है तो उत्पादक किसान को उसका पूरा लाभ मिले, किसान प्रोत्साहित हो, उस पर समय रहते नहीं सोच पाते, किसान बेचारा अधिक उत्पादन करने के बाद न्यूनतम मूल्य पर बेचने के लिए सरकारी एजेन्सी की ओर ताकने लगता है। खरीद केन्द्र पर धक्के खाने के बाद जैसे तैसे वह अपनी पसीने की कमाई को निर्धारित दाम ही प्राप्त कर पाता है। दूसरी तरफ जिस आम आदमी के लिए इतना अनाज पैदा हुआ है वह भी उसका लाभ प्राप्त नहीं कर पाता। उसे ले देकर यह अनाज सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत ही लेना है। अब अनाज को रखने के लिए गोदामों में जगह नहीं होगी तो खुले में रखा यह अनाज आंधी-बरसात की भंेट चढ़ जाएगा, चूहे कीटकों के काम आएगा, फिर इस अनाज को सरकार भी मजबूरी में पहले पीडीएस में खपाने का प्रयास करेगी। समुचित भण्डारण क्षमता नहीं होने से लाखों लोगों का साल भर तक दो जून की रोटी देने जितना तो अनाज खराब ही हो जाता है। सरकार को अब भण्डारण क्षमता विकसित करने के प्रयासों मेें तेजी लानी होगी। मनरेगा में गाॅंवों में ही गोदाम बनाने पर भी विचार किया जा सकता है। यदि सहकारी समिति स्तर पर शतप्रतिशत अनुदान देकर भी सरकार गोदाम बनाती है तो यह लाभ का सौदा ही सिद्ध होगा। सरकार को इस दिशा में गंभीर प्रयास करने होंगे। अन्यथा हम हर साल इसी तरह भण्डारण क्षमता से जूझते रहेेगे, खाद्यान्न बर्बाद होता रहेगा। यह मालूम होते हुए कि सामान्यतः मई-जून में मानसून दस्तक देने लगता है, इस खरीदे गए गेहूं को लावरिस की तरह खरीद केन्द्रों पर ही आंधी बरसात में खराब होने के लिए छोड़कर अन्नदाता की मेहनत पर पानी फेर दिया जाता है। होना यह चाहिए कि जरुरतमंद लोगों की जरुरतों व निर्यात कर विदेशी आय अर्जित करने के लिए वैज्ञानिक तरीके से इसका रख-रखाव किया जावे। नए गेहंू के मण्डियों में आवक बढ़ते ही गेहूं के भाव ओर अधिक कम होंगे, इससे किसानों का सहारा न्यूनतम समर्थन मूल्य ही रहेगा। इसके कारण सरकारी खरीद केन्द्रों पर गेहूं की आवक बढ़ेगी और इसके साथ ही पहले गेहूं की खरीद की व्यवस्था और उसके बाद खरीदे गए गेहूं व अन्य खाद्यान्नों को रखने की व्यवस्था सुनिश्चित होनी चाहिए। जिससे बाद में समस्या से दो चार नहीं होना पड़े व अन्न की बर्बादी को रोका जा सके। इसके साथ ही कृषि वैज्ञानिकों को फसलोत्तर गतिविधियों की और खास तौर से ध्यान देना होगा। आधुनिक उपकरणों से कृषि गतिविधियों से जहां एक ओर कृषि कार्य आसान हुआ है पर वहीं पर फसल की बर्बादी भी अधिक होने लगी है। फसल तैयार होने से लेकर किसान के घर या मंडी तक जाने तक की अवधि में होने वाले नुकसान को कम करने के उपाय भी खोजने होंगे। मंडी या खरीद केन्द्र पर आने के बाद उस खाद्यान्न के वैज्ञानिक रखरखाव पर भी ध्यान देना होगा। इस सबके साथ ही खाद्यान्नों के मूल्य संवर्द्धन गतिविधियों को प्रोत्साहित करना होगा। प्रसंस्करण कार्य को गति देनी होगी। जल्द खराब होने वाले उत्पादों खासतौर से फल सब्जी व दूध आदि के लिए कोल्ड स्टोरेज चैन विकसित करनी होगी। इसके अलावा इन्हेें एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए कोल्ड स्टोरेज सुविधायुक्त कंटेनरों/वाहनों की सुविधा भी विकसित करनी होगी। इसके साथ ही बिजली की नियमित सप्लाई व्यवस्था भी जरुरी है ताकि कोल्ड स्टोरेज सही तरीके से काम कर सके। केन्द्र व राज्य सरकारों को इस दिशा में प्राथमिकता से काम करना होगा हांलाकि 3 नवंबर से 5 नंवबर तक दिल्ली में आयोजित होने वाला वल्र्ड फूड इण्डिया फेस्टिवल इस दिशा में देशी विदेशी निवेशकों को आगे ला सकेगा। अब समय आ गया है जब सरकार को इस तरह की सुविधाएं पीपीपी मोड पर तैयार करनी होगी।
डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा,
एफ-2, रामनगर विस्तार,
चित्रांष स्कूल की गली,
ज्योति बा फूले काॅलेज के पास,
स्वेज फार्म, सोडाला, जयपुर-19
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