पत्रकारिता को लोकतंत्र की दिव्य दृष्टि के रुप में जाना जाता है। स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर वर्तमान भारत तक की यात्रा मे पत्रकारिता का महत्वपूर्ण स्थान है, पत्रकार हमेशा सकारात्मक परिवर्तन के वाहक बने और नकारात्मकता की कलुषिता का भी इस तरह शोधन किया कि वे कभी देश के लिए घातक नही बने, बल्कि सामाजिक प्रहरी के रूप में अपनी भूमिका बखूबी निभाई। तमाम प्रतिकूलताओं के बाद भी अपने मन्तव्य से डिगे नहीं। अपने लक्ष्य पर अडिग रह कर पत्रकारिता का तपस्वी जीवन को बनाए रखा। शायद इसीलिए गांधी जी ने भी पत्रकारिता को कभी एक व्यवसाय के रूप में
स्वीकार नहीं किया अपितु जीवन की राह दिखाने वाला माध्यम माना । गांधी ने कहा कि जनता की इच्छाओं और उनकी समस्याओं को समझने, उन्हें अपनी लेखनी के माध्यम से उजागर करना पत्रकारिता है। समाज में व्याप्त बुराईयों , असमानता और विसंगतियों को निडर पूर्वक सामने लाना ही पत्रकारिता है। पत्रकारिता का सार्वभौमिक और सर्वमान्य रूप से कह सकते हैं कि पत्रकारिता सिर्फ एक व्यवसाय ही नहीं, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, व्यापारिक, राजनीतिक, व जन हित के लिये उत्तरदायित्व बोध है, एक जागरूकता मिशन है, राष्ट्रवादिता की आवाज है, मानवाधिकार की हूक है जो समाज को जागरुक करने उसके ज्ञान को बढ़ाने समाज में दायित्वबोध को जगाने अन्याय के खिलाफ जनमत खड़ा करने का ना सिर्फ एक हथियार है बल्कि रोजमर्रा की घटनाओं सूचनाओं जानकारियों के प्रचार-प्रसार का सशक्त माध्यम है। आज हम पत्रकार को परिभाषित करे तो कह सकते हैं कि, समाचार लिखने तथ्य सूचनाओं जानकारियों को एकजुट कर उन्हें स्पष्टता, से पंक्तिबद्ध कर समाचार का स्वरूप देने वाले, संपादन करने वाले, लेख लिखने वाले, साक्षात्कार लेने वाले या किसी भी विचार की समीक्षा, आलोचना, समालोचना करने वाले सभी व्यक्ति पत्रकार हैं।

भारत में आकर गांधी जी ने “नवजीवन” और “यंग इंडिया”, दो समाचार-पत्र 1919 में निकाले। इनका प्रकाशन 1932 में गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद बंद हो गया। जेल से छूटने के बाद “हरिजन” निकाला जो उनके जीवन-पर्यंत चलता रहा। उन्होंने अहिंसक उपायों से सत्य की विजय के लिए जन प्रशिक्षण हेतु अखबार को एक महत्वपूर्ण और अनिवार्य साधन माना। सत्याग्रह आन्दोलन को धार देने के लिए तथा आत्मबल विकसित करने और नैतिक भावनाओं को अपने व्यवहार में प्राथमिक तौर पर प्रश्रय देने के लिए भी उन्होंने पत्रकारिता को माध्यम बनाया।
गांधी जी ने एक बार राजनीति के सन्दर्भ में जो कहा था, उसका आशय था कि राजनीति जो नैतिक मूल्यों से रहित है ऐसा मृत्यु का जाल है जिसमें आदमी की आत्मा फंसकर छटपटाने लगती है। यही बात पत्रकारिता के सन्दर्भ में उनका जो मत है उस पर भी बहुत कुछ सही बैठती है। उन्होंने हमेशा पत्रकारिता को एक मिशन की तरह अपनाया और उसे कभी व्यवसाय के रूप में ग्रहण नहीं किया। ज़ाहिर है, पत्रकारिता में उनका मिशन था- नैतिक मूल्यों की स्थापना, सत्य-अहिंसा और सत्याग्रह पर अडिग रहकर साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष करना और इस प्रकार भारत को राजनैतिक स्वतंत्रता के सही मार्ग की ओर अग्रसर करना। गांधी जी के ये दिशा-निर्देश भारत में पत्रकारिता की लिए बिलकुल नए और क्रांतिकारी थे। गांधी जी जब तक जीवित रहे भारत में इस प्रकार की पत्रकारिता की छाप अन्य पत्र-पत्रिकाओं में भी स्पष्ट देखी जा सकती है। उन दिनों भारत की पूरी पत्रकारिता गांधी जी के प्रभाव में आ चुकी थी। यह शायद भारत में पत्रकारिता का स्वर्णिम-युग था।
बेशक, आज की पत्रकारिता इस बात से भली-भाँति अवगत है कि वह अपने आप में एक बड़ा ही प्रभावी माध्यम है और जनमत निर्माण करने में उसका बहुत बड़ा हाथ है। लेकिन आज पत्रकारिता एक मिशन की बजाय व्यवसाय अधिक हो गई है और उसका नैतिक मूल्यों से पूरी तरह से विलगाव हो गया है। इस माध्यम का दुरुपयोग धड़ल्ले से होने लगा है। यह पूरी तरह से विज्ञापनों पर आश्रित हो गई है और बाज़ार के हाथों बिक गई है। धारणा बन गई कि पत्रकारिता को पैसा देकर जिस तरफ भी चाहें उसे मोड़ा जा सकता है पत्रकारिता आज शायद अपने सबसे खराब वक्त से गुज़र रही है। यह बड़े-बड़े और भ्रष्ट पूंजीपतियों के हाथ का एक खिलौना बनकर रह गई है। कुछ तटस्थ पत्रकार अपने मानवाधिकार तक से वंचित है, उनका जीवन तक असुरक्षित हो गया है। जन-जीवन से उनका सम्बन्ध पूर्णत: कट गया है। अत: आज पत्रकारिता के समक्ष सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि क्या पत्रकारिता कभी पुन: नैतिक मूल्यों के हक़ में खड़ी हो सकेगी? आज पत्रकारिता संकट के दौर में है, लोकतंत्र के वजूद को बचाने वाली पत्रकारिता का वजूद स्वयं संकट में है।
- डॉ भावना शर्मा
- मोदियो की जाव, झुंझुनूं
- राजस्थान
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