‘लखनऊ सेंट्रल’ कमाल की फिल्म हो सकती थी लेकिन कुछ कमियां इसे औसत बना कर छोड़ देती हैं। फिल्म देखने थकाने वाला है क्योंकि दो लाइन की बात को ढाई घंटे तक सुनाया गया है। बात अच्छी है लेकिन इतना घुमा-फिरा कर कही गई है कि बोर हो गई है।
फिल्म की कहानी सिर्फ इतनी है कि फरहान एक छोटी-सी झड़प के कारण मर्डर केस में उलझते हैं। उन्हें उम्रकैद की सजा होती है। वे जेल जाते हैं और आजादी के सपने देखने हैं। इस सपने में 15 अगस्त आ जाता है और यूपी के सीएम का सपना भी इसमें शामिल हो जाता है। सीएम चाहते हैं कि लखनऊ सेंट्रल में कैदियों का 15 अगस्त को परफॉर्म करे। फरहान चार और कैदियों को चुनकर उन्हें आजादी का लालच देकर बैंड बनाते हैं। पूरी फिल्म में यह कभी साफ नहीं हो पाता है कि फरहान खुद क्या चाहते हैं। आखिरी के पांच मिनिट इस बात का जवाब हैं, लेकिन तब तक आपमें जबरदस्त सब्र होना चाहिए।
एक और दिक्कत यह है कि निर्देशक रंजीत तिवारी की ये फिल्म में मजेदार घटनाएं नहीं हैं। छोटे-छोटे सीन मन लाए रखते हैं, लेकिन यहां एक सामान्य रफ्तार से गाड़ी चलती रहती है। ये वैसी ही फीलिंग है जैसी किसी सुनसान फोरलेन पर कार चलाने में होती है। न ट्रैफिक का रोमांच, न गांव की जिंदगी… सुनसान रास्ते पर अकेली दौड़ती कार। वैसे सिनेमाघर भी इन फोरलेन की तरह खाली दिखे। एक लाइन में एक इंसान… कोई माहौल नहीं और फिल्म भी बोर।
फरहान हर फिल्म में अच्छा ही करते हैं, यहां भी किया। दीपक डोब्रियाल, गिप्पी ग्रेवाल, राजेश शर्मा और इनामुलहक को ज्यादा जगह मिलना थी, वे यहां थोड़ी देर के लिए ही हैं। डायना पेंटी को भी कम समय के लिए रखा गया, लेकिन ये अच्छा लगा। रोनित रॉय को और खतरनाक किया जा सकता था। वे कमाल के कलाकार हैं और जितनी देर स्क्रीन पर रहते हैं, कुछ न कुछ बढ़िया करते रहते हैं।
जेल की फिल्म थी तो कुछ सीन परिवारों के लिए अजीब हो सकते हैं। बढ़िया यह रहा कि ये फटाफट आए और निकल गए। फिर भी बच्चों को इसमें मजा आने से रहा। एेसी फिल्मों का तो टीवी पर इंतजार किया जा सकता है।