सरकार की तरफ से पिछले दो-तीन सालों से हिंदी को बचाने के लिए जो प्रयास किए गए हैं उनके सकारात्मक असर दिखे हैं। केंद्र सरकार ने हिंदी को बढ़ावा देने के लिए अप्रत्याशित कदम उठाए हैं। तकरीबन सभी मंत्रालयों में हिंदी को ज्यादा से ज्यादा अपनाने को कहा गया है। सरकार इस बात पर ज्यादा फोकस करके चल रही है कि मंत्रालयों में दैनिक कामकाज और आम बोलचाल की भाषा ंिहंदी ही हो। सरकार के इस फरमान का सकारात्मक असर भी देखने को मिल रहा है। ज्यादातर मंत्रालयों में हिंदी को तवज्जों दी जा रही है। अगर ऐसा पूर्व की सरकारें भी करती तो निश्चित रूप से हिंदी की दुर्दशा ऐसी न होती। हिंदी के चलन का मौजूदा सिलसिला यूं ही चलता रहना चाहिए। धनाढ्य और विकसित वर्ग के लोगों ने जब से हिंदी भाषा को नकारा है और अंग्रेजी को संपर्क भाषा के तौर अपनाया है, तभी से हिंदी भाषा के सामने कांटे बिछ गए हैं। वैश्वीकरण और उदारीकरण के मौजूदा दौर में हिंदी दिन पे दिन पिछड़ती गई, जिसके कारक हम सब हैं। देखकर अच्छा लगता है जब सरकारी विभागों में दैनिक आदेश अंग्रेजी के साथ हिंदी में भी जारी हो रहे हैं। वित्त मंत्रालय में अधिकांश सभी दस्तावेज अंग्रेजी में प्रयोग किए जाते रहे हैं लेकिन अब वहां भी ंिहंदी में लिखे जा रहे हैं।
केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार का जब आगमन हुआ तो उसके तुरंत बाद ही उनकी तरफ से सभी मंत्रालयों में बोलचाल व पठन-पाठन में हिंदी का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करने का फरमान जारी किया गया। पिछले एक दशक की बात करें तो हिंदी को बचाने और उसके प्रसार के लिए कई तरह के वायदे किए गए। पर सच्चाई यह है कि हिंदी की दिन पे दिन दुर्गती हुई, जिसकी वजह से हिंदी भाषा लगातार कामगारों तक ही सिमटती चली गई। हिंदी दिवस को रश्मअदायगी भर न माना जाए, हिंदी को जीवन का हिस्सा बनाने के लिए संकल्प लेना चाहिए। दुख तब होता है जब लोग हिंदी को बढ़ावा देने की वकालत भी करते हैं और अपनाते भी नहीं। लोगों में एक धारणा रही है कि शु़द्व हिंदी बोलने वालों को देहाती व गंवार समझा जाता है। गलत है ये सोच! बीपीओ व बड़ी-बड़ी कंपनियों में हिंदी जुबानी लोगों के लिए नौकरी बिल्कुल नहीं होती। इसी बदलाव के चलते मौजूदा वक्त में देश का हर दूसरा आदमी अपने बच्चों को अंगे्रजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाने को मजबूर है। इस प्रथा को बदलने की भंयकर दरकार है।
सरकारी प्रयास के साथ-साथ आमजन की भी जिम्मेवारी बनती है कि हिंदी को जिंदा रखने के लिए अपने स्तर से भी कोशिशें करें। हिंदी के लिए जनांदोलन की जरूरत है। मौजूदा वक्त में हिंदी भाषा के सामने उसके वर्चस्व को बचाने की सबसे बड़ी चुनौती है। आजादी से अब तक तकरीबन सभी सरकारों ने हिंदी के साथ अन्याय किया है। देश ने पहले इस भाषा को राष्टृभाषा माना, फिर राजभाषा का दर्जा दिया और अब इसे संपर्क भाषा भी नहीं रहने दिया है। हिंदी भाषा को बोलने वालों की गिनती अब पिछड़ेपन में होती है। अंग्रेजी भाषा के चलन के चलते आज हिंदुस्तान भर में बोली जाने वाली हजारों राज्य भाषाओं का अंत हो रहा है। हर अभिभावक अपने बच्चों को हिंदी के जगह अंग्रेजी सीखने की सलाह देता है। इसलिए वह अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में दाखिला न दिलाकर, अंग्रेजी पढ़ाने वाले स्कूलों में पढ़ा रहे हैं। दरअसल इनमें उनका भी दोष नहीं है क्योंकि अब ठेठ हिंदी बोलने वालों को रोजगार भी आसानी से नहीं मिलता है। शु़द्व हिंदी बोलने वालों को देहाती और गंवार कहा जाता है।
हिंदी भाषा की मौजूदा दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण हिंदी समाज है। उसका पाखंड है, उसका दोगलापन और उसका उनींदापन है। यह सच है कि किसी संस्कृति की उन्नति उसके समाज की तरक्की का आईना होती है। मगर इस मायने में हिंदी समाज का बड़ा विरोधाभाषी है। अब हिंदी समाज अगर देश के पिछड़े समाजों का बड़ा हिस्सा निर्मित करता है तो यह भी बिल्कुल आंकड़ों की हद तक सही है कि देश के समद्व तबके का भी बड़ा हिस्सा हिंदी समाज ही है। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि आज यह भाषा समाज की उपेक्षा का दंश झेल रही है। हिंदी की लाज सिर्फ ग्रामीण स्तर पर रहने वाले लोगों से ही बची है। क्योंकि वहां आज भी इस भाषा को ही पूजते, मानते और बोलते हैं। वहां आज भी अंग्रेजी की खिल्लियां उड़ाई जाती हैं। दुख इस बात का है कि हिंदी के कई बड़े अखबार और चैनल हैं। बावजूद भी हिंदी पिछड़ रही है।
भारत में आज भी छोटे-बड़े दैनिक, सप्ताहिक और अन्य समयाविधि वाले 5000 हजार से भी ज्यादा अखबार प्रकाशित होते हैं। और 1500 के करीब पत्रिकाएं हैं, 400 से ज्यादा हिंदी चैनल हैं, के बावजूद भी हिंदी लगातार पिछड़ती जा रही है। उसका सबसे बड़ा कारण है कि पूर्व की सरकारें इस भाषा के प्रति ज्यादा गंभीर नहीं दिखीं। हिंदी के प्रति सरकारों ने बिल्कुल भी प्रचार प्रसार नहीं किया। इसलिए हिंदी खुद अपनी नजरों में दरिद्र भाषा बनती चली गई। लोग इस भाषा को गुलामी की भाषा की संज्ञा करार देते रहे। हिंदी महज कामगाारों की भाषा सिमट कर न रहे। आंकड़े बताते हैं कि हिंदुस्तान की आजादी के सत्तर साल के भीतर जितनी दुर्दशा हिंदी की हुई है उतनी किसी दूसरी भाषा की नही। देश में ऐसे बच्चों की संख्या कम नहीं है जो आज हिंदी सही से बोल और लिख, पढ़ नहीं सकते। हिंदी को विदेशों में ज्यादा तरजीह दी जा रही है। विभिन्न देशों के कालेजों में अब हिंदी की पढ़ाई कराई जाती है। उसके पीछे कारण यही है कि विदेशी लोग भाषा के बल से भारत में घुसपेठ करना चाहते हैं। जब वह हिंदी बोल और समझ लेंगे तब वह आसानी से यहां घुस सकेंगे। इससे हमें सर्तक रहने की जरूरत है।
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रमेश ठाकुर,
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