समय कुटिल साधना होगा जीवन को बांधना होगा युद्ध मृत्यु से हो चाहे कठोर अनित्य से हो चाहे मनुज हारा नहीं अभी तक संघर्ष अभित्य से हो चाहे उसे अवश्य
समय कुटिल साधना होगा जीवन को बांधना होगा युद्ध मृत्यु से हो चाहे कठोर अनित्य से हो चाहे मनुज हारा नहीं अभी तक संघर्ष अभित्य से हो चाहे उसे अवश्य
‘अब मुंह झुराए बैठे ही रहोगे। या कहीं कोई काम-धाम भी करोगे। आग लगे इस प्रधानी के चुनाव को, जब से सरकार ने चुनाव की घोषणा की है। तब से
लॉकडाउन में खूब पढ़ना है इस जग में नाम करना है फिर से कोरोना बीमारी आई घर में रहकर करो पढ़ाई जब पढ़ाई खत्म हो जाए घर में ही मनोविनोद
गाज़ियाबाद। प्रतिष्ठित चैनल एवं पत्रिका ट्रू मीडिया के तत्वावधान में हिंदू नववर्ष नव संवत्सर 2078 चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के अवसर पर 10 अप्रैल 2021 को सम्मान समारोह एवं काव्य संगोष्ठी
जब सब समझाए तो समझ जाना चाहिए, जो छोड़ चुके हैं अब उनको छोड़ ही देना चाहिए। उतर चुके हैं जो दिल से उनको जीवन से अब उतार फेंकना चाहिए।
जीना दूभर मरना आसान क्यों है हैरत में हैं सब फिर भी ख़ामोश क्यों रात तो रात दिन भी वीरान क्यों है रोज मिलता था कल तक जो बार-बार वो
सुनो तुम कब तक उस खुदा का नाम लेकर अपने गुनाहों को दूसरों के सिर थोपते रहोगे। क्या तुमने ईश्वर को अंधा समझ रखा है? मगर वो अंधा नहीं है
बदले-बदले रंग है, फीका-फीका फाग ! ढपली भी गाने लगी, अब तो बदले राग !! ●●●●●●● फागुन बैठा देखता, खाली हैं चौपाल ! उतरे-उतरे रंग है, फीके सभी गुलाल !!
होली आई , होली आई, अपने साथ मानवता लाई ना कोई रंगों का भेदभाव…….. खुशियों की बौछार है लायी, रंग बिरंगे गुलाल बिखेरती , रंगों का त्यौहार है आयी ……..
सामाजिक सद्भाव और प्रेम का पर्व है- होली। यद्यपि होली को पौराणिक संदर्भों के अनुसार भक्त प्रहलाद और उनकी बुआ होलिका के संदर्भ में व्याख्यायित किया गया है किन्तु वास्तव
दोस्ती का रंग हमसे पूछिए ज़रा सा हमसे दिल लगाकर ज़रा सा मुस्कुरा कर देखिए। दोस्ती होती नहीं है मोहब्बत से कम ज़रा हमारे साथ चल कर, ज़रा सा हमारे
गालों पर रंग हाथों में चंग मन में उमंग होली के ढंग होली की भोर गली गली शोर बदला है तोर नाचे मन मोर आपस में घेरे रंग सने चेहरे
जय जय बोलऽ हल्ला करऽ अउर बजावऽ गाल लग्गे नाहीं आई कोरोना गली न ओकर दाल जोगीरा सा रा रा रा घर में पोतऽ घर में डालऽ घर में खेलऽ
नई दिल्ली. अखिल भारतीय स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक संघ दिल्ली के तत्वावधान में आज संघ के मुख्यालय बरवाला में संघ के राष्ट्रीय महामंत्री दयानंद वत्स की अध्यक्षता में पद्म विभूषण
होरी खेलन आयो, सखी री देखो श्याम हठीलो मानत न वो विनती मोरी, करत रहत मो संग बरजोरी मोको बहुत सतायो, सखी री देखो श्याम हठीलो सात रंगन से भर
जैसे छीन रहे हो मुझसे उन्हें वैसे खुदा तुमसे कोई अपना छीने तो क्या तुम्हें दर्द नहीं होगा? जैसे जी रहा हूं मैं तडफ़ तडफ़ उसके बिना अगर तुम्हें भी
मन के बिछौने पर चलो ख़्वाब संजोयें मिलकर करें हम कल को सुनहरा चलो आओ मिलकर..।। बदल दें हार को हम जीत में आओ मिलकर करें साकार हर सपना चलो
क्या जमाना आ गया है ? लगता है इंसान का जमीर मर गया है अब छोटी छोटी बच्चियाँ भी सुरक्षित नही हैं आखिर इनकी सुरक्षा करने के लिए क्या दूसरे
मैं कभी-कभी निशब्द हो जाता हूं। समझ नहीं आता क्या लिखूं. और किसके बारे में लिखूं । जिनको देखकर शब्दों के जाल बुनता था, वो ही आज मुझे निशब्द कर
मैं अर्पण हूं,समर्पण हूं, श्रद्धा हूं,विश्वास हूं। जीवन का आधार, प्रीत का पारावार, प्रेम की पराकाष्ठा, वात्सल्य की बहार हूं। तुम पूछते हो मैं कौन हूं? मैं ही मंदिर,
मैं जहां देखता हूं मुझे तुम ही नजर आती हो, कभी दुर्गा बन सिंह पर सवार हँसती मुस्कुराती हुई, तो कभी महाकाल के वक्ष स्थल पर पांव रख महाकाली बन