बचपन बहुत खूबसूरत होता है। एक यही ऐसा विषय है, जिस पर चर्चा करने या इसे याद करने मात्र से ही ज्यादातर चेहरे खिल जाते हैं।
बचपन नाम है – खेलकूद, उछलकूद और शरारतें करने का।
बच्चों के लिए पढ़ाई के साथ-साथ खेल भी महत्त्वपूर्ण है। शिक्षा की भांति खेलकूद मूल अधिकार तो नहीं है, परंतु उससे कम भी नहीं है।
परन्तु वक्त के साथ बहुत बदल गया है बचपन और बचपन के खेल। दिन-दिन भर की धमाचौकडी, तरह तरह के खेल और छोटी-छोटी तकरारें अब कहां बच्चों के बीच देखने को मिलती हैं। इस न्यू एडवांस वर्ल्ड में सभी बच्चे अब तरह-तरह के एप्प के साथ खेलते नज़र आते हैं। जिसमें पबजी , ब्लू व्हेल व तमाम ऐसे एप्प विकसित हुए है ।अगर सही मायने में देखा जाए तो अब बचपन की पूरी तस्वीर ही बदल गई है। सोशल मीडिया में एक्टिव रहना आम बात हो गयी है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एनीमेशन के सोशल मीडिया पर उपयोग का प्रभाव वास्तविकता से ज्यादा (ग्रेटर दैन लाइफ) हो रहा है, जो युवाओं को असल और आभासी दुनिया की भूलभुलैया में भटका रहा है।
अधिकतर अभिभावक बच्चों को सिर्फ पढ़ाई के लिए कहते हैं। बच्चे भी इस स्थिति में पढ़ाई को बोझ समझ बैठते हैं। परिणाम यह होता है कि बच्चे पढ़ाई से उदासीन हो जाते हैं। अगर वे माता-पिता के डर से पढ़ाई करने को तैयार भी होते हैं, तो अनिच्छा के कारण वे बेहतर नहीं कर पाते। अभिभावकों को कम ही यह कहते सुना जाता है कि जाओ बेटे, थोड़ा खेल लो।
साथ ही बच्चे भी अब खेल को कम महत्त्व देने लगे हैं। अब 90 फीसदी से ज्यादा बच्चे परंपरागत खेलों के बजाय टीवी, इंटरनेट, ऑनलाइन या ऑफलाइन गेम्स पर समय बिताते हैं।
एक समय था जब गर्मी की छुटि्टयां शुरू होते ही पारंपरिक खेलकूदों की बहार जाया करती थी। हर गली मोहल्ले में सामूहिक रूप से विभिन्न प्रकार के खेल खेले जाते थे। लेकिन आज गली और मैदान वीरान पड़े रहते हैं। शेर-बकरी, चौपड़ पासा, अस्टा-चंगा, चक-चक चालनी, समुद्र पहाड़, दड़ी दोटा,गुल्ली डंडा,कंचे सतोलिया, चोर पुलिस, लुका-छिपी और पतंग उड़ानें जैसे पारंपरिक खेलों से अपना मन बहलाते थे जो कि अब देखने को भी नहीं मिल रहे हैं।
जहां पहले पार्कों में शाम होते ही बच्चों का कोलाहल सुनने को मिलता था वहीं वे होमवर्क के भार में इतने दबे हैं कि उन्हें बाहर निकलने का वक्त ही नहीं है। उनका बचपन एक कमरे तक सिमट कर रह गया है ।
हम प्रतियोगी हो रहे इस माहौल में बच्चों को भी पूरी तरह से रोबोटिक और मशीनी युग में पहुंचा चुके हैं। उनकी नियमित दिनचर्या में अब खेल का कोई स्थान नहीं है।अगर इस पर विचार किया जाए तो क्या इसके लिए सिर्फ बच्चे जिम्मेदार हैं? जिम्मेदारी तो सभी को लेनी होगी। समाज के सभी लोगों को अपने भविष्य से कैसी उम्मीदें हो गई हैं, इस पर विचार करने की तत्काल आवश्यकता है। हमने रोशनी करने के इंतजाम में घोर अंधेरा फैला लिया है।
किसी ने बचपन के बारे में सोचा नहीं जो वह खुद जी चुका है और अब बढ़ती उम्र में उसके फायदे परिलक्षित हो रहे हैं। वही सब हमने अपने बच्चों के लिए संभाल कर नहीं रखा। दौड़ा दिया एक रेस में घोड़े की तरह।
बच्चों पर हम केवल अपने निर्णय थोप रहे हैं।
आज बच्चों में शिथिलता है, नीरसता है, तो इसके लिए भी वे माता-पिता ही जिम्मेदार हैं, जो बच्चों को खेलने से रोकते हैं। बच्चे तंदूरियों के स्वाद में मोटे हो रहे हैं, लेकिन माता-पिता उन्हें खेलने के लिए बाहर भेजने को राजी नहीं हैं। उन्हें लगता है कि बाहर प्रदूषण का स्तर भयानक है। बैक्टीरिया-कीटाणु, संक्रमण से बच्चों को दूर रखने का छिपा हुआ उद्देश्य भी उन्हें खेलने से रोक रहा है । उन्हें डर रहता है कि कहीं बच्चा बाहर खेलेगा तो चोट लग जाएगी या बिगड़ जाएंगे। इसी सोच के कारण बच्चों को घरों से बाहर जाने से रोकते हैं।
हम मानसिक तौर पर मजबूत बच्चे बनाने के लिए जो उपाय कर रहे हैं उससे उनके जीवन को बस एक रुटीन मिल जाएगा। समाज के स्वस्थ विकास के लिए अभिभावकों को बच्चों को खेल के मैदानों में भेजना होगा। माता-पिता व्यस्त दैनिक जीवन से थोड़ा वक्त बच्चों के खेल में भी बिताएं। नहीं तो बच्चे आगे चल कर सिर्फ पैसे कमाने की मशीन बन जाएंगे। उनके बीच संवेदना का स्तर न्यून होता जाएगा।
यह सामाजिक धारणा है कि खेल बच्चों को जीवन में आगे बढ़ने से रोकते हैं, जबकि पढ़ाई जरूरी है। इस बारे में एक कहावत प्रचलित है कि पढ़ोगे -लिखोगे तो बनोगे नवाब , खेलोगे-कूदोगे तो होंगे खराब।
आखिर ऐसा क्यों है? हम उस समाज में हैं, जहां बच्चों के संपूर्ण सर्वांगीण विकास के लिए हम वे सभी सुविधाएं देने को तैयार हैं, जो उनके लिए आवश्यक होती हैं। फिर यह कैसे भूला जा सकता है कि बच्चों के विकास में खेल का योगदान भी कम नहीं है?
खेल-खेल में ही बच्चे जीवन के अनेक पहलुओं, जैसे खेल भावना, सामूहिक प्रयत्न, प्रतियोगी भावनाएं – संघर्ष और धैर्य को अपने में समाहित कर लेते हैं, जो उनके बाद के जीवनकाल तथा समाज को बेहतर बनाने में मददगार साबित होता है। खेलकूद, भागदौड़ बच्चों में आजादी का भाव उत्पन्न करता है, जो उन्हें अनेक प्रकार के तनाव और दबाव से दूर रखता है एवं उन्हें ऊर्जावान बनाए रखता है।
पढ़ाई से जहां वे बौद्धिक रूप से विकसित होते हैं, वहीं खेल से बौद्धिक और शारीरिक रूप से मजबूत होते हैं। एक तरह से देखा जाए तो पढ़ाई अगर सैद्धांतिक विषय है तो खेल प्रायोगिक विषय। खेल उन्हें निर्णय लेने की क्षमता में मदद पहुंचाता है।कोई भी खेल निश्चित तौर पर वर्ग या समूह में खेला जाता है। समूह में खेले जाने के कारण उनमें हर तरह के संघर्ष से खुद को उबारने और उसका सामना करने की शक्ति जन्म लेती है। रही बात आज के जीवन की, तो तनाव भरे माहौल में यह बच्चों में आशा का जबर्दस्त संचार करता है।
परीक्षा परिणाम से आत्महत्याएं करते बच्चों को खेल इस निराशा से दूर कर देता है। बच्चे खेलते हुए सामाजिक होने की संपूर्ण प्रक्रिया से गुजरते हैं।
किंडरगार्टेन स्कूल की परिकल्पना यह सिद्ध करती है कि बच्चों में खेल-खेल के द्वारा मानसिक समझ को तेजी से विकसित किया जा सकता है।
बच्चों के विकास को नजदीकी से देखने वाले विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि खेल उनके मन को स्वस्थ रखने का टॉनिक है। हम वैश्विक स्तर पर खेल के संपूर्ण मानदंड में पिछड़े हैं। यह हमारी मानसिकता के कारण है। विश्व के लगभग सभी बड़े और विकसित देश बच्चों को खेल के लिए आगे कर रहे हैं । ऐसे पाठ्यक्रम संचालित किए जा रहे हैं, जिनमें खेल की अनिवार्यता भी हो। हमारे देश में किसी खास खेल के लिए अगर कोचिंग की तलाश की जाए तो दूर-दूर तक देखने को नहीं को मिलेगी। मगर पढ़ाई के लिए गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले, शहर-शहर कई कोचिंग, स्कूल और अन्य शिक्षण संस्थान थोक के भाव मिल जाएंगे।
मनोविश्लेषक सिगमंड फ्रायड ने कहा था कि मनुष्य का मूल स्वभाव यह है कि वह चुनौतियों को स्वीकार करता है। फ्रायड का यह विचार ऑनलाइन खेल की जद में फंस रहे बच्चों के संदर्भ में बिल्कुल सटीक है। क्योंकि ब्लू ह्वेल जैसे गेम के कारण दुनिया में 250 से भी ज्यादा बच्चों ने आत्महत्या कर ली । अगर आज पारम्परिक व आउटडोर खेलों को महत्व दिया जाता तो शायद इन बच्चों की जानें नहीं जा पाती ।
हमें याद रखना चाहिए कि ये बच्चे, जो आज शहर में खेलने से वंचित हैं, कल के कर्णधार होंगे। हमें सोचना चाहिए कि हम इन्हें कैसा भविष्य देने जा रहे हैं और कैसी स्मार्ट सिटी बनाने जा रहे हैं, जिसमें बचपन का गला घोंटा जाएगा। ऐसे में बच्चों को बचपन जीने का मौका ही नहीं मिल पा रहा है और बचपन अपनी उम्र से पहले ही वयस्क हो चला है । आज किसी बच्चे के चेहरे पर मासूमियत, भोलापन या शरारत दिखायी नहीं देती। छह-सात साल की उम्र में ही परिपक्वता झलकने लगती है। अल्हड़पन कहीं नजर ही नहीं आता। बचपन की मासूमियत का खोते जाना एक गंभीर विषय है। यह तमाचा है समाज के दिखने वाले आधुनिक चेहरे पर।
सवाल है कि लगातार बचपन का यों जीवन से बिखराव समाज और परिवारों को किस ओर ले जाएगा?
अतः खेल को बढ़ावा देने के लिए हमें पहले अपने बच्चों को इसके लिए विभिन्न स्तरों पर तैयार करना होगा। उन्हें बार-बार खेलने को प्रेरित करना होगा। छोटी-छोटी आबादी पर खेल के लिए आधारभूत सुविधाओं का निर्माण करना होगा। अगर बच्चे खेलने की जिद करें, तो उसे समझना होगा। यह वक्त है सोचने का कि हम खेलों को किन कारणों से महत्त्व नहीं दे पा रहे हैं।
रीतेन्द्र कंवर शेखावत
Rajasthan university jaipur
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