रिश्तों में वो खट्टा मीठा स्वाद यहां न अब कोई
लोगों में अपनेपन की बुनियाद यहां न अब कोई
नये जमाने में सबलोग भले जुडे़ हों दुनिया से
पर अपनों से कर पाए संवाद यहां न अब कोई
लाचारी दुनियादारी और जाल न जाने कितने हैं
हर कोई है उलझा सा आजाद यहां न अब कोई
नर्क से बदतर लगती है बस्ती सारे मजलूमों की
कहां जाएं सुनता उनकी फरियाद यहां न अब कोई
थी बस्ती में जो रौनक सब आपके दम से ही तो थी
आप गए तो सूना है आबाद यहां न अब कोई
वो गए थे जब तब यादों ने मुझको बहुत सताया था
भूल चुका है दिल उनकी वो याद यहां न अब कोई
सजा सख्त हो जाए इतनी कि पापी थर थर कांपे
खुदगर्जी में कर पाए अपराध यहां न अब कोई
खुद का ख्याल खुद से ही रखने की आदत डालें
बुढा़पे में जो थामते थे औलाद यहां न अब कोई
इस सुंदर से बागवान को जाने किसकी नजर लगी
खिलते फूल उस तूफां के बाद यहां न अब कोई
विक्रम कुमार
मनोरा, वैशाली