ये काम कभी भी हो नहीं सकता किसान का
बंदूक और किसी की थी, कंधा किसान का
आडम्बर रच रहे थे वो देश के दुश्मन
घूम रहे थे पहनकर चोला किसान का
बंदूक और किसी की थी……….
जनवरी थी वो छब्बीस, दिन था मंगलवार
लुटेरे घर में घुस गये ले हाथों में तलवार
कहीं ट्रैकटर, कहीं पे घोड़े और कहीं कृपाण
मजाक बना डाला था तिरंगे की शान का
बंदूक और किसी की थी ………
चार सिपाही सौ लुटेरों से बेबस हो गये
लाल किले में किसी की टोपी किसी के जूते खो गये
पवित्र तिथि, ऐसे अतिथि, हम समझ नहीं पाऐ
हमनें तो सीखा था आदर करना मेहमान का
बंदूक और किसी की थी………….
उस दिन जाने देश के कैसे संजोग थे
और कोई होता तो हम देख भी लेते
क्या करते हम उनका जो अपने ही लोग थे
पी गये थे घूंट हम उस दिन अपमान का
बंदूक और किसी की थी,कंधा किसान का
((राकेश दहिया))